मिला क्या ?

डाल के रेत में पानी ,
घोला शरबतों की तरह,
ये सोचकर देखा ,

मिला क्या ?
न मिला रेत में पानी
न मिली प्रेम की वाणी ,
न मिली मन को शांति ,
केवल रही एक भ्रान्ति,
की जो मिला भी, वो मिला क्या ?
वो मिला भी , तो मिला क्या ?

आज जब मुट्ठी खोली तो खली पायी ,
ये हथेली रेत को न रोक पायी,
न हाथ में कोई हाथ था ,
न ख्यालों में कोई साथ था ,
न प्यालों में जाम था ,
न अपनों में नाम था ,
न करने लायक काम था ,
न साँसों में अभिमान था ,
न सपनो में सुकून था ,
न खुद पे यकीन था ,
बस एक सवाल था ,
ये सब जो किया,
उससे हमको जो मिला ,
जो मिला भी , वो मिला क्या ?
वो मिला भी , तो मिला क्या?

एक अजीब दौड़ में दौड़े जा रह हैं ,
एक जंग और हम लडे जा रहे हैं ,
जीत के भी हार का जो स्वाद है चखा,
क्या करूँ मैं जीत के स्मारकों का ?
जंग में जीत के है मिला क्या?
प्यार में भी जीत के है मिला क्या ?
काश , ये जंग हुई ही न होती ,
और दिल की प्यार में हार हुई होती ,
तब कुछ मिलता या न मिलता ,
मगर मन में ये सवाल न होता कि ,

मिला क्या ?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Related Post